Sunday, September 5, 2010

सांसद बनाम सरपंच





ग्राम स्वराज एक भारतीय कल्पना है, जिसमें गांव अपने निजी साधनों पर खड़े होते हैं और समर्थ बनते हैं। स्वालम्बन इसका मंत्र है और लोकतंत्र इसकी प्राणवायु। गांवों में जनशक्ति का समुचित उपयोग और सामुदायिक साधनों का सही इस्तेमाल यही ग्राम वराज्य का मूलमंत्र है। सदियों से हमारे गांव इसी मंत्र पर काम करते आ रहे हैं। सच्चे अर्थों में हम अपने आपको तभी लोकतांत्रिक राज्य कह सकते हैं जब जनता शासन-प्रशासन के कार्यों में अधिक से अधिक हाथ बंटाए और वह अपना दायित्व समझे। लोकतंत्र का यह स्वप्निल-स्वप्न तभी पूरा हो सकता है जब राजकाज में आम आदमी की हिस्सेदारी हो, उसकी भागीदारी हो। इस स्वप्न को साकार करने का एकमात्र तरीका है पंचायती राज। वो पंचायते ही हैं जो भारत को लोकतांत्रित पहचान देती हैं। भारत में पंचायती राज का इतिहास अत्याधिक पुराना है और इसकी जड़ें हड़प्पा सभ्यता से लेकर वैदिक काल तक में देखी जा सकती हैं। सुखद आश्चर्य की बात है कि प्राचीन भारत में भी स्थानीय शासन दो वर्गों में विभाजित था-ग्रामिण और नगरीय स्थानीय प्रशासन। जब दुनिया सभ्य हो ही रही थी, उस समय वैदिक काल में ही हमारे यहां पंचायतें अस्तित्व में आ चुकी थीं। शायद यही कारण है कि प्राचीन भारत को ग्राम-पंचायतों के देश के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त थी।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद -40 राज्यों को पंचायत गठन का निर्देश देता है। आजाद भारत का यह पहला कदम था जिससे पंचायती राज ने अपनी यात्रा शुरू की। पंचायत राज को लेकर बलवंतराय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति(1977), डा. पीवीके राव समिति ( 1985) और एलएम सिंघवी समिति (1986) ने समय- समय पर महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। इससे पंचायती राज को एक संवैधानिक मान्यता और स्वायत्तता भी मिली। इस रास्ते में नौकरशाही की अड़चनें और भ्रष्टाचार का संकट एक विकराल रूप में सामने है । 1993 में संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन के तहत पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गयी। इस व्यवस्था के तहत महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गयी जो अब पचास प्रतिशत कर दी गयी है। इसी तरह केंद्रीय स्तर पर 27 मई, 2004 की तारीख एक महत्वपूर्ण दिन साबित हुआ जब पंचायत राज मंत्रालय अस्तित्व में आया। इस समय देश में कुल पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या करीब 28.10 लाख है, जिसमें 36.87 प्रतिशत महिलाएं। पंचायत राज का यह चेहरा आश्वस्त करने वाला है। भारत सरकार ने 27 अगस्त, 2009 को पंचायती राज में महिलाओं का कोटा 33 से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का जो फैसला लिया वह भी ऐतिहासिक है। इस प्रस्ताव को प्रभावी बनाने के लिए अनुच्छेद 243( डी) में संशोधन करना पड़ेगा।
चिंता की बात सिर्फ यह है कि यह सारा बदलाव भी भ्रष्टाचार की जड़ों पर चोट नहीं कर पा रहा है। सरकारें जनकल्याण और आम आदमी के कल्याण की बात तो करती हैं पर सही मायने में सरकार की विकास योजनाओं का लाभ लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। आज का पंचायती राज विकास के धन की बंदरबाट से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। कुछ प्रतिनिधि जरूर बेहतर प्रयोग कर रहे हैं तो कहीं महिलाओं ने भी अपने सार्थक शासन की छाप छोड़ी है किंतु यह प्रयोग कम ही दिखे हैं। जाहिर है कि पंचायतों में एसे लोग चुन कर ही नहीं आए रहे हैं जो गांव के लिए योजना बना सकें और गांव के विकास कार्यों का सही ढंग से क्रियान्वयन कर सकें। ऐसी कमी तभी पूरी हो सकती है जब पंचायती राज संस्थाओं में नेतृत्व देने की रूचि रखने वाले लोगों के लिए वेतन का प्रावधान हो। यह अनूठी पहल न केवल शिक्षित युवाओं को पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव के प्रति उत्साहित करेगी, वहीं ग्रामीण स्तर पर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। हिमाचल प्रदेश की धरती से शुरू हुई लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने की यह मुहिम रंग लाती र्है, तभी सही मायनों में ग्राम स्वराज की अवधारणा फलीभूत होगी।

लवण ठाकुर
संयोजक आरटीआई ब्यूरो मंडी।
941203940

1 comment:

  1. लवण जी

    नमस्ते .

    आपने सरपंचो के वेतन को लेकर सही बात की है.. जो की समय की मांग है.. लेकिन ऐसी भी कई नीतियाँ है जो की पंचायतीराज के मूल को नष्ट करने की कोशिश कर रही है...

    जैसे की गुजरात में की बात करे तो विकास के कदम छूता माना जाता है. लेकिन पंचायत के सशक्तिकरण के नाम पर शशक पक्ष राजकीय लाभ लेने की कूटनीति खेल रहा है.. यहाँ समरस -( निर्विरोध ) जैसी योजनाये प्रस्थापित करके लोकशाही के जिवंत एकम चुनाव को निकलने की साजिश हो रही है.और फिर से महिला, वंचित समुदाय राजनितिक धारा से दूर हो रहे है.

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